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जो हसरतें मुसलसल मुकम्मल हो,
इन्हें कौन सा जामा पहनाऊँ?
हर हसरत कतरन हुई बिखरी,
कितना समेटूँ, कितना रफ़ू करवाऊँ!
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जो हसरतें मुसलसल मुकम्मल हो,
इन्हें कौन सा जामा पहनाऊँ?
हर हसरत कतरन हुई बिखरी,
कितना समेटूँ, कितना रफ़ू करवाऊँ!
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उनकी खामोशियों से बज़्म सुनसान हो गये,
खिंचते चले गये मुझसे यूँ अनजान हो गये!
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