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बैठा सोचूँ काहू को कैसी,
मिली ज़िंदगी ऐसी वैसी,
राज काज काहू को कैसे,
मिले ठाठ बाट ऐसे वैसे,
मजबूरी काहू को पहाड़ जैसी,
मिले मजूरी अधूरी ऐसी वैसी,
लेटा सोचूँ काहे को ऐसे,
प्रभु चलाए मोहे जैसे तैसे!
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बैठा सोचूँ काहू को कैसी,
मिली ज़िंदगी ऐसी वैसी,
राज काज काहू को कैसे,
मिले ठाठ बाट ऐसे वैसे,
मजबूरी काहू को पहाड़ जैसी,
मिले मजूरी अधूरी ऐसी वैसी,
लेटा सोचूँ काहे को ऐसे,
प्रभु चलाए मोहे जैसे तैसे!
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उनके कहने से मैं यहाँ संगमरमर की चादर ओढ़े लेटा हूँ,
वो अब भी मुझसे कहते हैं कि मेरे संग मर क्यों नहीं जाते,
सब दरवाज़े दरख़्तों से सख़्त हो गये हैं,
सब दीवारें खंडहर बेवक़्त हो गई हैं,
वो अब भी मुझसे कहते हैं कि मेरे संग घर क्यों नहीं आते!
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A passerby’s ode to Humayun’s Tomb
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